यादें बचपन की
( नरेन्द्र कुमार चावला )
सन उन्नीस सौ पचास पचपन की -----------
यादें घिर आयी हैं फिर आज मेरे बचपन की।!
भारत-विभाजन ने खेला मेरे बचपन में खेल !
परन्तु इस परलय ने बढ़ाया,पारस्परिक मेल।।
बंटता था भाई-बहनों,पड़ोसी व दोस्तों में सच्चा प्यार।
माँ-बाप,दादा-दादी,नाना-नानी,मामा,चाचा का मिला दुलार।।
मेरा बचपन अमीरी के झूलों से धरती पर आ गिरा।
Imported खिलौनों से देसी खिलौनों में आ घिरा।।
और अब मिले ऐसे खेल,जिनसे हुआ में मित्रों से मेल।।
स्टापू खेलना व रस्सी कूदना,डंडे से पहिये चलाना।
गुल्ली-डंडा,धूप-छाँव,गुड्डे-गुड़िया,गीटे व पिट्ठू खेलना।।
पेड़ों की डालियों पर हँसते-मुस्काते हुए झूले झूलना।
आंधी आने पर भागकर अम्बियां ले कर आना,मुश्किल है भुलाना।।
सावन में पानी भरे गड्डों से मेंढ़कों की वो प्यारी टर्र-टर्र।
रात को घर से बाहर जाकर , खेलने से लगता था डर।!
दुःख-सुख में पड़ोसियों का वो अविस्मरणीय सहयोग।
कहाँ खो गए वे सब हितैषी तथा निस्वार्थी प्यारे लोग !!
अभावग्रस्त जीवन में भी बच्चों की इच्छा होती रही पूरी।
खाना-कपड़े,शिक्षा,कुछ मनोरंजन भी मिला , जो था जरूरी।।
दादी से कहानियां सुनना तथा साथ-साथ मंदिर,गुरुद्वारे जाना।
रविवारआर्यसमाज जाना,नहीं भूलता बिनाका गीतमाला ज़माना।।
अविस्मरणीय है वो बचपन,जिसमें खुशियां देते रहे मां-बाप।
आज रिश्ते-नाते दूर हो रहे,आर्थिक भूख बढ़ रही,समझे आप।!
और अब तो वरिष्ठ होकर लौट आया है अनोखा बचपन।
कविताएं लिखना, चित्रकारी तथा संगीत में गुजर रहा ये बचपन।।*नरेन्द्रचावला*भारत*अमेरिका*
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